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रात चैत की
देख रही है प्यार से
पीला चाँद उगा है
पर्वत पार से।
क्षीरसिंधु से उठी
नई हिलकोर है
पत्ता-पत्ता दम साधे
हर ओर है
तेज कदम चल रहे
नछत्र कहार-से।
बुग्यालों की हरी
मखमली घास पर
मिलना ऐड़ी -
आछरियों के वास पर
मन का बर्फ
पिघल उट्ठा मनुहार-से।
कभी बुलाती वारिस -
बुल्ले शाह को
कभी ढूँढ़ती
टेसूवाली राह को
लौटी नहा चाँदनी
पिंडर-धार से।
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